" हिन्दी काव्य संकलन में आपका स्वागत है "


"इसे समृद्ध करने में अपना सहयोग दें"

सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
हिन्दी काव्य संकलन में उपल्ब्ध सभी रचनायें उन सभी रचनाकारों/ कवियों के नाम से ही प्रकाशित की गयी है। मेरा यह प्रयास सभी रचनाकारों को अधिक प्रसिद्धि प्रदान करना है न की अपनी। इन महान साहित्यकारों की कृतियाँ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य है। यदि किसी रचनाकार अथवा वैध स्वामित्व वाले व्यक्ति को "हिन्दी काव्य संकलन" के किसी रचना से कोई आपत्ति हो या कोई सलाह हो तो वह हमें मेल कर सकते हैं। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जायेगी। यदि आप अपने किसी भी रचना को इस पृष्ठ पर प्रकाशित कराना चाहते हों तो आपका स्वागत है। आप अपनी रचनाओं को मेरे दिए हुए पते पर अपने संक्षिप्त परिचय के साथ भेज सकते है या लिंक्स दे सकते हैं। इस ब्लॉग के निरंतर समृद्ध करने और त्रुटिरहित बनाने में सहयोग की अपेक्षा है। आशा है मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए लाभकारी होगा.(rajendra651@gmail.com)

फ़ॉलोअर

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

डॉ. गौतम सचदेव

परिचय
जन्म : ८ जून १९३९ को मंडी वारबर्टन (पंजाब का वह भाग, जो अब पाकिस्तान में हैं).
निधन :२९ जून २०१२
प्रकाशित रचनाएँ : प्रेमचन्द: कहानी शिल्प (शोध प्रबन्ध), अधर का पुल, एक और आत्मसमर्पण(कविता संग्रह), गीतों भरे खिलौने(राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित बालगीतों का संग्रह), सिन्दूर की होली कसौटी पर(आलोचना), गबन समीक्षा(आलोचना सहलेखन), नवयुग हिन्दी व्याकरण(सहलेखन), सच्चा झूठ(व्यंग्य संग्रह), साढ़े सात दर्जन पिंजरे(कहानी संग्रह), बूंद बूंद आकाश(ग़ज़लों और दोहों का संकलन), अटका हुआ पानी (कहानी संग्रह), त्रिवेणी(तीन उपनिषदों - ईश, केन और कठ - की मुक्त छंद में काव्यात्मक पुनर्रचना).


1. 
फूल बेमतलब खिले, खिलते रहे 
लोग मतलब से मिले, मिलते रहे

ज़िंदगी है सिर्फ़ दामन क्यों सभी
फाड़ते या बिन सिले, सिलते रहे

ज़ख़्म ये कैसे भरे हैं वक़्त ने
कुछ उसी से फिर छिले, छिलते रहे

लोग चलते हैं न अपने दम सभी
कुछ लुढ़कते या ठिले, ठिलते रहे

पेड़ कटते देखकर सहमे हुए
पात ये सारे हिले, हिलते रहे

घाव बातों से न ‘गौतम’ के भरे
वे मगर उनसे छिले, छिलते रहे


2.

साँझ मिली हँसकर रोती
रात बिखरती बन मोती

अल्हड़ भोर पकड़ तारे
चली किधर को सब खोती

फूल न यूँ ज़ख़्मी रहते
ओस अगर दिल से धोती

ख़ुश्बू ने पी लीं किरणें
सुबह मगर अब तक सोती

कली हँस पड़ी मुग्धा-सी
घुटी-घुटी थी दुख ढोती

फूल भरे घट उबटन के
काँटे बीँध गये मोती

धूल ओढ़ ली टहनी ने
खिसकी पत्तों की धोती

सी कर फूलों की पलकें
किसको है पीड़ा होती

होगी ही बंजर आशा
ये सपनों ने है जोती

क़िस्मत कभी न आयेगी
‘गौतम’ तूने क्यों न्योती

3.
आ ज़रा मंज़िल बदल लें
दो क़दम ही साथ चल लें

छोड़ दें अंदर अँधेरे
आ ज़रा बाहर निकल लें

फिर कहेंगे या सुनेंगे
बस अभी चुपचाप चल लें

दुख हुआ अपना पुराना
आ नये दुख में बदल लें

टूटते पत्थर तलक भी
हम अभी थोड़ा पिघल लें

रास्ते तो सब कठिन हैं
जो चलें वे कर सरल लें

जब थकें तो बैठ जायें
जब गिरें उठकर सँभल लें

छोड़ काँटे और कीचड़
फूल ले लें या कमल लें

क्यों करें आगा व पीछा
फ़ैसला करके निकल लें

कम मिला तो कम सही है
ख़्वाब के हम क्यों महल लें

दिल न दबकर सूख जायें
संग चलकर हो तरल लें

हो गई बासी उदासी
ताज़गी लेकर मचल लें

प्यास यह सबकी बुझाये
घूँट इक मेरी ग़ज़ल लें ।

4.
चाँदनी मुस्कान-सी फैली हुई है
रोज़ रातों में बिछी मैली हुई है

दे रही उत्तर बिना पूछे सभी को
मुँह दिखाने की नई शैली हुई है

आदमी के पास यह कमसिन गई थी
लुट गई या और मटमैली हुई है

रूप को गंदा करेंगी ये निगाहें
वे समझती हैं खुली थैली हुई है

चाहिये दिल साफ़ हो 'गौतम' हमारा
देह का क्या वह अगर मैली हुई है ।


5.
परिंदे दरख्तों का दुःख जानते हैं
जड़ों में दबा दर्द पहचानते हैं

बुलंदी अगर कल्पना हो तो क्या है

गगन हम ख़्यालों का घर मानते हैं

नहीं जानते हम कहाँ पर खुदा है
है दिल आदमी का जहाँ जानते हैं

फ़रिश्ते बनें या वे मज़हब चलायें

मगर बैर दुनिया से क्यों ठानते हैं

सितारे नहीं मिल सकें दोस्तों को

मिली है धरा तोड़ना जानते हैं

लिया है गगन इन भुजाओं में हमने

 गले जब लगें वे यही मानते हैं

मिलेंगे कहाँ ख़ाक में जानने को

बहुत ख़ाक दर-दर की हम छानते हैं

6.

उमड़ा है बरस पाए न बादल मेरे मन में
गीला सा सुलगता रहे जंगल मेरे मन में

नन्ही सी तमन्ना कभी झांके जो नज़र से
ये ओंठ लगा जाते हैं सांकल मेरे मन में

आया था कभी चोर इरादे की तरह वो

आहट सी गया छोड़ के हर पल मेरे मन में

किरणों में उमड़ता है, मचलता है लहर में

आँखों से ढुलकता हुआ काजल मेरे मन में

जीवन का नगीना हुआ सपनों का सितारा

खुशबू सा उड़ा दर्द का आँचल मेरे मन में

फुर्सत नहीं चाहत का ये मौक़ा भी नहीं है

क्यों बोल रही याद की कोयल मेरे मन में 

7.
अँधेरे बहुत हैं तभी हैं उजाले
बुझा दीप समझे न देखे न भाले

यहाँ कब अँधेरा मिटे कौन जाने
चलो कुछ बचा लें दिलों के उजाले

चमन आज़माइश करे मौसमों की
मगर और काँटों पे दिल न उछाले

छिपाया जिसे आप दिल ने नज़र से
निकलते नहीं आँसुओं के निकाले

किसी के लिए फूल बन जाएँ कांटे
किसी के लिए फूल बन जाएँ छाले

कहीं रेशमी ख्वाब सचमुच सजे हैं
कहीं रोज़ फाके व ग़म के निवाले

कहो मत नहीं जायका ज़िन्दगी में
मुहब्बत के अब भी बचे हैं मसाले

मुलाक़ात जब भी हुई यह हुआ है
कभी हम संभालें कभी वह संभाले

सूना है कि 'गौतम' ने मुँह सी लिया है
करेगा न अब और हीले-हवाले


8. तन कुचला लूटा माता को सबने खींचातानी में
लुटी-पिटी धरती दुखियारी डूब गई है पानी में

संग बहें मुर्दों के ज़िंदा घर टूटें ज्यों शीशे के
कौन मौत के मुँह से खीँचे लोगों को तुग़्यानी में

होड़ मची है कैसी जीवन और उमड़ती लहरों में
हाथ बढ़ाते रक्षक यम के दूत घसीटें पानी में

भूख ग़रीबी रोग मुसीबत चले साथ में लोगों के
छूटे कहाँ न जाने अपने इस दुनिया बेगानी में

कभी न कम होंगे दुनिया में मारे हुए मुसीबत के
ख़ुश रहती हैं तभी मक्खियाँ इन्सानी मेहमानी में

नहीं फ़रिश्तों से कम होते जान बचायें औरों की
दानव हैं ज़िंदा को धक्का दे देते जो पानी में

नहीं काम की वे सरकारें कुर्सी जो केवल देखें
धरे हाथ पर हाथ सोचती रहतीं आनाकानी में

भूखे तक रोटी पहुँचाने आ जाये शायद कोई
ज़िंदा है उम्मीद अभी तक उजड़े पाकिस्तानी में

रह सकती चेहरे की भाषा ‘गौतम’ कभी न अनबूझी
पीड़ा जब दिखने लगती सूरत जानी-अनजानी में

9. 

नाम गंगा का बदल दो यह नदी बदली हुई है
पाप धो-धो कर सभी के यह बड़ी गंदली हुई है

भूल जाओ थी कभी यह साफ़ सुथरी-सी सुनीरा
शहरियों के पान की अब पीक-सी उगली हुई है

बहुत मुर्दे खा चुकी है मरघटों की यह सहेली
रोज़ गन्दी नालियां पीकर इसे मतली हुई है

अब न धारा या तटों की गंदगी में फर्क कोई
अंग पहले ही गले अब कोढ़ में खुजली हुई है

पूजते क्या ख़ाक सब जो डालते कचरा नदी में
कह रहे देवी जिसे पैरों तले कुचली हुई है

पास शहरों के गुज़रते ही हमेशा सूख जाती
इस कदर आबादियों से यह डरी दहली हुई है

संग रहकर आदमी के रोग सब 'गौतम' लगे हैं

होश में रहती न भटकी रास्ता पगली हुई है


10.

 सच मुखों का यार बन झूठा हुआ है
चूमने से फूल यह जूठा हुआ है

बिंध न पाया जो कहो पत्थर न उसको
बिंध गया जो वह नहीं टूटा हुआ है

प्यार का पीपल दिलों में कब दबा है
तोड़कर दीवार भी फूटा हुआ है

बाँधता बाँधे बिना हर आदमी को
मोह दुनिया का बना खूँटा हुआ है

दौलतें हीरे ख़ज़ाने महल इतने
माल क्या इस मुल्क ने लूटा हुआ है

मिल गया परदेस में भी देश अपना
पर लगे ज्यों दिल वहीं छूटा हुआ है

रास्ता मज़दूर ने यह क्या बनाया
पिस गया ख़ुद और यह कूटा हुआ है

आदमी क्या एक भी साबुत नहीं है
देखिये जिसको वही टूटा हुआ है

और किससे आदमी उम्मीद रक्खे
देवता अपना अगर रूठा हुआ है

झूठ की ‘गौतम’ करे कैसे बुराई 

आज तो सच भी बड़ा झूठा हुआ है


११. 
ग़ैर को अपना बनाकर देख लो
कुछ हमें भी आज़माकर देख लो

तुम बसाओगे न आँखों में हमें
पर ज़रा दिल में बसाकर देख लो

दिन ख़यालों में बिताते हो सदा
रात आँखों में बिताकर देख लो

तर हुई आँखें ख़ुशी में किस लिए
फूल से शबनम उठाकर देख लो

राज़ चेहरे से प्रकट हो जायेगा
यों छुपाने को छुपाकर देख लो

कल भले घुत कर तुम्हें मरना पड़े
आज थोड़ा गुनगुनाकर देख लो

ज़िंदगी के साथ क्या-क्या दफ़्न है
वक़्त के पत्थर हटाकर देख लो


१२. 


चाँदनी रुस्वा हुई दीवार पीछे
आदमी लगते रहे ख़ूँख़्वार पीछे

आग पकड़ी किस तरह पूरे जहाँ ने
एक चिनगारी गिरी मीनार पीछे

खाद है बारूद की कमसिन जड़ों में
टहनियाँ बन जाएँगी अंगार पीछे

भेड़ महजब की दिखे निर्दोष कितनी
भेड़ियों की फ़ौज है तैयार पीछे

क्या मिली जन्नत उन्हें दीवानगी में
छोड़ कर दुनिया गये बेकार पीछे

रोशनी देतीं ख़ुदाओं की किताबें
जिल्द पर भोंकी गई तलवार पीछे

हो गये तहज़ीब को नासूर कितने
ख़ून छलके हर ख़ुशी-त्योहार पीछे

टूट जाने दो बुतों को आज ’गौतम’
दिख सकें मुँह सब छिपे बीमार पीछे

१३.
काश यह दिल सीख पाता दर्द के करना किनारा
झील ग़म की और यह था सिर्फ़ इक जर्जर शिकारा

उम्र का छप्पर टपकता है बिना बरसात के ही
याद का कोई न उमड़े अब कहीं बादल कुँवारा

किस तरह अपनी गली में खिड़कियाँ भी दें तसल्ली
झाँकना है गर बुरा तो जुर्म है करना इशारा

रंग-ख़ुश्बू नेकनीयत हैं यहाँ किसने कहा है
जाल हो सकता सभी में हो जहाँ सुन्दर नज़ारा

भूल जाना ज़िंदगी का कम नहीं अनमोल तोह्फ़ा
भूलकर हमदर्द मेरे कह रहे भूलो दुबारा

होड़ तिनके से भला कमज़ोर कश्ती क्या करेगी
डूबने वाला चला है लहर का लेकर सहारा

घोंटता दम जब अँधेरा टिमटिमाता है अकेला
गिर पड़े आकाश से तो टूटकर चमके सितारा

१४. 
छीन कर दीपक हमारे क्यों अँधेरे दे रहे हो
रात जैसी सूरतों के क्यों सवेरे दे रहे हो

छीन कर पर्वत नहीं दे पाये तुम झरना ज़रा-सा
रेत में यह किस लिए मृगजल उकेरे दे रहे हो

घोंसला उम्मीद का हरगिज़ न तिनकों से बनेगा
क्यों तसल्ली के निरे कच्चे मुँड़ेरे दे रहे हो

साँप ज़हरीले नहीं कम पालती हैं आस्तीनें
बाँबियों को दोष क्यों चातुर सँपेरे दे रहे हो

सभ्यताओं ने खिलाये फूल हैं इनसानियत के
क्यों उन्हें हैवान के आगे बिखेरे दे रहे हो