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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 25 सितंबर 2013

'अनवर' साबरी

1.रहते हुए क़रीब जुदा हो गए हो तुम
बंदा-नवाज़ जैसे ख़ुदा हो गए हो तुम

मजबूरियों को देख के अहल-ए-नियाज़ की
शायान-ए-ऐतबार-ए-जफ़ा हो गए हो तुम

होता नहीं है कोई किसी का जहाँ रफ़ीक़
उन मंज़िलों में राह-नुमा हो गए हो तुम

तन्हा तुम्हीं हो जिन की मोहब्बत का आसरा
उन बे-कसों के दिल की दुआ हो गए हो तुम

दे कर नवेद-ए-नग़मा-ए-ग़म साज़-ए-इश्क़ को
टूटे हुए दिलों की सदा हो गए हो तुम

'अनवर' गुनाह-गार ओ ख़ता-वार ही सही
सर-ताबा-पा अता ही अता हो गए हो तुम

2.
वक़्त जब करवटें बदलता है
फ़ितना-ए-हश्र साथ चलता है

मौज-ए-ग़म से ही दिल बहलता है
ये चराग़ आँधियों में जलता है

उस को तूफ़ाँ डुबो नहीं सकता
जो किनारों से बच के चलता है

किस को मालूम है जुनून-ए-हयात
साया-ए-आगही में पलता है

उन की महफ़िल में चल ब-होश-ए-तमाम
कौन गिर कर यहाँ सँभलता है

मैं करूँ क्यूँ न उस की क़दर 'अनवर'
दिल के साँचे में अश्क ढलता है


3.
उम्र गुज़री है इल्तिजा करते
क़िस्सा-ए-ग़म लब-आशना करते

जीने वाले तेरे बग़ैर ऐ दोस्त
मर न जाते तो और क्या करते

हाए वो क़हर-ए-सादगी-आमेज़
काश हम फिर उन्हें ख़फ़ा करते

रंग होता कुछ और दुनिया का
शैख़ मेरा अगर कहा करते

आप करते जो एहतराम-ए-बुताँ
बुत-कदे ख़ुद ख़ुदा ख़ुदा करते

रिंद होते जो बा-शुऊर 'अनवर'
क्या बताऊँ तुम्हें वो क्या करते

4.
हर साँस में ख़ुद अपने न होने का गुमाँ था
वो सामने आए तो मुझे होश कहाँ था

करती हैं उलट-फेर यूँही उन की निगाहें
काबा है वहीं आज सनम-ख़ाना जहाँ था

तक़सीर-ए-नज़र देखने वालों की है वर्ना
उन का कोई जल्वा न अयाँ था न निहाँ था

बदली जो ज़रा चश्म-ए-मशीयत कोई दम को
हर सम्त बपा महशर-ए-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ था

लपका है बगूला सा अभी उन की तरफ़ को
शायद किसी मजबूर की आहों का धुवाँ था

'अनवर' मेरे काम आई क़यामत में नदामत
रहमत का तक़ाज़ा मेरा हर अश्क-ए-रवाँ था.

5.
तसव्वुर के सहारे यूँ शब-ए-ग़म ख़त्म की मैं ने
जहाँ दिल की ख़लिश उभरी तुम्हें आवाज़ दी मैं ने

तलब की राह में खा कर शिकस्त-ए-आगही मैं ने
जुनूँ की कामयाबी पर मुबारक-बाद दी मैं ने

दम-ए-आख़िर बहुत अच्छा किया तशरीफ़ ले आए
सलाम-ए-रुख़्सताना को पुकारा था अभी मैं ने

ज़बाँ से जब न कुछ यारा-ए-शरह-ए-आरज़ू पाया
निगाहों से हुज़ूर-ए-हुस्न अक्सर बात की मैं ने

नशेमन को भी इक परतव क़फ़स का जान कर 'अनवर'
बसा-औक़ात की है बिजलियों की रह-बरी मैं ने